सूर - 1 Jhanvi chopda द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सूर - 1

"सुर"

CHAPTER-01

JANVI CHOPDA

Disclaimer

ALL CHARECTERS AND EVENT DEPICTED IN THIS STORY IS FICTITIOUS.

ANY SIMILARITY ANY PERSON LIVING OR DEAD IS MEARLY COINCIDENCE.

इस वार्ता के सभी पात्र काल्पनिक है,और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति के साथ कोई संबध नहीं है | हमारा मुख्य उदेश्य हमारे वांचनमित्रो को मनोंरजन करना है |

चहरे पे पड़ रही जुर्रीयां दादू को साफ़ साफ़ बता रही थी की, उसके बने बनाये साम्राज्य को अलविदा कहने का वख्त अब आ चूका था | लेकिन वो बहोत अच्छी तरह से जानता था की उसकी जगह लेने के लिए ओर एक दादू पैदा हो चूका था !

दादू ने परवेज़ को बचपन से अपने बेटे की तरह पाला था | खिलौना खेलने वाले हाथों को बंदूक पकड़ना सिखाया था | खून की थाली में खाना सिखाया था...और आज उन्हीं हाथों से लिखी गई कविता दादू के हाथ लगी थी !

जुबेर ने अमोल को ईशारे में ही पूछा की “ये सब क्या हो रहा है?” और बदले में अमोल ने इशारा किया की “बस देखता जां|”

आँखे करना चाहे दीदार, लब्ज पुकारें बार बार,

कौन थी, कहाँ से आई वो, क़यामत साथ लाई वो !

चैन छीना नींद छीनी ! मन ही मन मुस्काई वो,

मानो थी कारवां खुदा का, दुवाओं सी बरसाई वो !

खुली पड़ी किताब के, बिन पढ़े पन्नों सी वो,

झरनों की क्या बात करें, नदियों सी बलखाती वो !

दिल है घायल उन सुरों से, कांनो ने थामा जिसको,

भीड़ भाड़ के उन रस्तों पे, घुंघरू सी छनकाई वो !

बंजर पड़ी इस जमीन पे, ओस की बुँदे लाई वो,

कातिल सी इस शक्सियत को, अपना बनाने आई वो !

ये पढ़कर दादू से रहा न गया, वो बोल पड़ा...

'घोडा चलाने वाले ये हाथ, कलम कबसे पकड़ने लगें, परवेज़?? लगता है, मकसद भूल गए हो अपना ! कहो तो रिटायरमेंट दे दूँ?...आँखे जब चूड़ियों की चमक पे अटक जाए ना! तब हाथ निशाना चुक जाते है!'

'शायद आप भूल गए हो दादू, की परवेज़ तीन चीज़े कभी नहीं भूलता..."दिया हुवा वादा" , "ठाना हुवा वादा" और "ताना हुवा निशाना" !'

'जुबेर! समजा दे अपने दोस्त को, जो बना सकता है, वो मिटा भी सकता है|'

'परवेज़ ना कभी किसीका मोहताज था, ना कभी होगा! मैं खुद ही बना हूँ और मेरे अलावा मुझे कोई नहीं मिटा सकता दादू! आप भी नहीं|'

'परवेज! मेरे शेर! तुम्हारी यही बात तो तुम्हें सबसे नायाब बनाती है, इस कुर्सी पर मेरे बाद बैठने वाला दूसरा दादू है तू !'

'मैं दूसरा दादू नहीं, पहेला परवेज़ बनना चाहता हूँ ! और ये आप अच्छी तरह से जानते हो दादू!'

'मतलब?'

'तुला काई सांगू दादू! मंजे, he want to be gentle gangster…!'_अमोल बिच में टपका |

'अबे ओ! ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के 13 बार निकाले गए चपरासी! अमेरिका में पैदा हुवा था ,क्या? हिन्दी में नही बोल सकता! और ये मैं क्या सुन रहा हूँ, परवेज़? गुंडे भी अगर शरीफ होने लगे तो मुंबई का क्या होगा भई! और फिर मेरे कानून के खिलाफ जाओगे तुम ?'

'आपने अपने वख्त में जो किया सो किया! अब परवेज़ का राज है, तो नियम भी उसके और कानून भी उसका!'

परवेज़ की ये बात सुन के दादू का खून उबल रहा था, वो कुछ बोले उसके पहले ही जुबेर ने उनको शांत करते हुए कहाँ...

'आप फिकर न करो दादू! क्योंकि सिर्फ तरीके बदले है, परवेज़ नहीं! आपने उसे सिखाया है, वो भूलेगा नहीं |'

'जुबेर! दादू को आराम की जरुरत है, उन्हें अंदर ले जाओ! मैं उनकी दवाई लेकर आता हूँ और हाँ, नए नियमो की लिस्ट सुना देना सबको!......दादू को भी!'

जुबेर दादू को अंदर ले गया ! दादू का शरीर भले ही साथ नहीं दे रहा था, लेकिन उसका दिमाग आज भी कुते की नाक जैसा शातिर था! दूर रही चीजों को भी सूंघ लेता था | जुबेर ने पूछा_

'दादू, चल क्या रहा है आपके दिमाग में?'

“सोच रहा हूँ की, मैं चिड़िया की तरह घौसला बनाता रहा, चारा लाता रहा, लेकिन पता नहीं चला की कब मेरे बच्चे अकेले उड़ने जितने बड़े हो गए!'

'आप इतना क्यूँ सोच रहे हो दादू? जानते हो ना, परवेज़ ने आपकी एक भी बात नहीं टाली आज तक! कितनी इज्ज़त करता है वो आपकी! वो सिर्फ ये चाहता है, की बिना किसी वजह के बेगुनाह को सज़ा ना मिले |'

'बात इज्ज़त करने की नहीं है, जुबेर! और नाहीं बदले गए नियमो की! परवेज़ ने 3 सालों के बाद आज कलम पकड़ी है, उसकी खाली पड़ी किताब के पन्ने अब भरने लगे है...जो मेरी चिंता बढ़ा रहे है|'

'अरे! आप जानते हो ना, कोलेज में भी उसे कवितायेँ लिखने का शोख़ था |'

'हाँ, लेकिन उन 3 सालों की कहानी भी जानता है ना जुबेर! किन हालातों से बहार निकला है मैंने उसे! बड़ी महेनत से लौहा बनाया है उसे!....डर है की कहीं पिघल ना जाए| उसकी आँखों में भड़की हुई चिनगारी को सिर्फ मैं देख पा रहा हूँ, हो सके तो बचा लेना अपने दोस्त को....फ़ना होने से!'

***

दादू की बात से जुबेर भी अपने जिगरी के लिए परेशान था | परवेज़ के आते ही उसने अपनी बेचेनी बहार निकाली ...

‘परवेज, क्या है ये सब कुछ?’

‘क्या?...दिन है...तू है...मैं हूँ...और हम दोनों के हाथों में चाय का कप है, दिख नहीं रहा तुजे!’

‘तू मेरा बोस नहीं है, तेवर न दिखा | तू अच्छे से जानता है ना! की मैं किसके बारे में बात कर रहा हूँ? फिर सीधे सीधे जवाब दे...कब, कैसे, कहाँ हुवा, ये सब कुछ?’

‘अभी कौनसा कोंट्राक्ट चल रहा है ?’

‘वो कलेक्टर की बेटी को उठाने वाला! हाँ, लेकिन उससे आपने लिखी कविता का क्या वास्ता जनाब?’

‘कलेक्टर की बेटी यानी की, ”तारा”-उसका लोकेशन जानने के लिए पाँच दिन पहेले हम पनवेल गए थे, याद है ?’

हाँ, परवेज़ हाँ! हम पनवेल गए थे और किसीने हमारे वहाँ होने की खबर पुलिस को दे दि थी, फिर उसके बाद दंगे में हमें भागना पड़ा था.....सब याद है, अब आगे भी बोलेगा कुछ?’

‘वहीँ...पनवेल में, उसी दंगे के बिच में, मैंने सुने थे वो “सुर” जिसे सुनकर मेरे सारें के सारे “सुर” बदल गए...!’

‘सुर...!? तू होश में तो है परवेज़? इस जनरेशन में १९वीं सदी वाली बातें कर रहा है तू....! और उसमें भी हम ठहरे गैंगस्टर की औलाद ! किसीने सुन ली ना तेरी ये उटपटांग बातें, तो बर्ख़ास्त कर देंगे हमें ! और हमारी तो पर्सनालिटी भी ऐसी है, की भीख माँगते अच्छे नहीं लगेंगे, दोस्त!’

‘ये मेरा दोस्त बोल रहा है, या दादू का दायाँ हाथ? और वैसे भी, सदी १९वीं हो या २१वीं, इंसान के पैतरे बदलते है, जज्बात नहीं !’

To be continue…

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